इतिहास और वास्तुकला के नज़रिए से "एतमादुद दौला" का खास स्थान है। यह स्मारक भारतीय और पर्शियन वास्तुकला शैली का नायाब नमूना है। एतमादुद दौला का मकबरा यमुना नदी के बाएं किनारे पर चीनी का रौज़ा स्मारक के समीप स्थित है।
एतमादुद दौला का मकबरा भारतीय-इस्लामिक शैली की वास्तुकला में शुद्ध सफेद पत्थरों से बना है व इसपर अलंकृत नक्काशीदार काम हुआ है। मकबरा चारबाग़ शैली में बने उद्यान के मध्य में स्थित है तथा यह ईमारत 149 फुट वर्ग में फैले और जमीन से करीब 3 फुट और 4 इंच ऊँचें लाल बलुआ पत्थर के चबूतरे पर खड़ी है। मकबरे के मुख्य कक्ष में वज़ीर और उनकी बेगम रहा करते थे। इस मुख्य कक्ष के आस-पास स्थित छोटे-छोटे अन्य कमरों में परिवार के बाकी सदस्य रहते थे। स्मारक की दीवार पर फ़ारसी शिलालेख, कुरान की आयतें व अन्य धार्मिक लेख लिखे हुए हैं।
जहांगीर की पत्नी, नूरजहां के पिता मिर्जा घियाथ बेग को "एतमादुद दौला" का खिताब प्राप्त था व वह जहांगीर के शासनकाल के दौरान उनके वज़ीर भी थे। जहांगीर द्वारा ही अपने ससुर मिर्जा घियाथ बेग को यह की उपाधि दी गई जिसका अर्थ होता है साम्राज्य का स्तंभ। 1622 में पिता की मौत के बाद नूरजहां ने इस स्मारक को बनाने की घोषणा की। 1628 ईस्वी में यह स्मारक बनकर तैयार हो गया। यहाँ वजीर मिर्जा घियाथ बेग के साथ-साथ उनकी पत्नी अस्मत बेगम की भी कब्र मौजूद है।
यह भारत देश का पहला ऐसा मकबरा है जो पूरी तरह से संगमरमर पत्थर से बनाया गया था। इससे पहले मुगल शासन के दौरान सभी किलों व मकबरों को लाल बलुआ पत्थरों से बनाया जाता था।
लोकल और विदेशी यात्रियों के लिए यहां अलग-अलग एंट्री फीस है।
गर्मियों के मौसम में जाने से बचें।
सरकार द्वारा नियुक्त किए हुए लोकल गाइड्स ही हायर करें।
फोटोग्राफी कराने के लिए यहां अच्छे दृश्य मिलेंगे।
सूर्यास्त से सूर्योदय तक एतमादुद दौला खुला रहता है।
शुक्रवार के दिन एतमादुद दौला में प्रवेश बंद रहता है।